Sunday, July 14, 2013

बंद हो विधवाओं पर अत्याचार vidhva

बात बरसों पुरानी है। मैंने वृंदावन में सड़क पर एक विधवा का शव देखा। स्थानीय लोगों ने उस महिला का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि विधवा का शव छूने से अपशकुन होता है। ऐसे अंधविश्वासों की वजह से ही विधवाओं का शोषण होता है।
वह सामाजिक कार्यकर्ता हैं, लेखिका हैं और महिला आंदोलन की नेता भी। मोहिनी गिरी 40 साल से भारत व दक्षिण एशिया में युद्ध प्रभावित परिवारों के लिए संघर्ष करती रही हैं। पेश है अमेरिका की केन्टकी यूनीवर्सिटी के एक कार्यक्रम में विधवाओं के हालात पर हुए मोहिनी गिरी के भाषण के अंश।
भेदभाव और शोषण
मैं आज यहां आपसे विधवाओं के मुद्दे पर बात करना चाहती हूं। आप पूछेंगे कि भला इस मंच पर विधवाओं का मुद्दा क्यों?
हम सब एक वैश्विक समुदाय का हिस्सा हैं। हमें एक-दूसरे की समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए ताकि समाधान की दिशा में कदम उठाए जा सकें। दुनिया भर में बड़ी संख्या में महिलाएं युद्घ व हिंसा की वजह से अपने पतियों को खो देती हैं। काश! ये लड़ाईयां खत्म हो जाएं। ऐसा हुआ तो यकीनन ये यह दुनिया एक बेहतर जगह बन पाएगी। विधवाओं के साथ हमेशा से भेदभावपूर्ण व्यवहार होता रहा है। वर्ष 2010 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 4.5 करोड़ विधवाएं हैं। इनमें से 4 करोड़ महिलाओं को विधवा पेंशन नहीं मिल पाती। परंपरा के नाम पर इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है, परिवार के अंदर उन्हें बोझ समझा जाता है।
पितृसत्तात्मक व्यव्स्था
भारत में विधवाओं के खराब हाल के लिए काफी हद तक पितृसत्तामक व्यवस्था जिम्मेदार है। इस व्यवस्था के तहत परिवार के अंदर सारे अधिकार पति के पास होते हैं। ऐसे में पति की मौत होते ही महिला से सारे अधिकार छिन जाते हैं और उसका शोषण शुरू हो जाता है। कहने के लिए तो देश में महिलाओं के लिए कई कानून हैं। लेकिन असल में इन कानूनों का पालन नहीं हो पाता है। अक्सर पति की मौत के बाद घर की जमीन भाइयों और बेटों में बंट जाती है और विधवा महिला पूरी तरह असहाय हो जाती है। मुझे भी ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। मेरे पति ने अपनी मौत से पहले अपनी सारी संपत्ति मेरे नाम कर दी थी, लेकिन मुझे यह अधिकार हासिल करने के लिए कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ा। मुझसे कहा गया कि मैं अपने बेटों से इस बारे में एनओसी लेकर आऊं।
दूसरी शादी नहीं
हमारे यहां विधवाओं की दूसरी शादी का चलन ही नहीं है। पति की मौत के बाद पत्नी को बाकी की जिंदगी अकेले ही बितानी होती है। भारतीय परंपरा में माना जाता है कि शादी सात जन्मों का रिश्ता है। ऐसे में विधवा स्त्री दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकती। पति की मौत के बाद उसे पूरे जीवन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। परंपरा के नाम पर इन्हें सफेद धोती पहननी पड़ती है। विधवाओं के लिए सज-संवरकर रहना गलत माना जाता है। 
वृंदावन का हाल
अब मैं आपसे वृंदावन की बात करूंगी। वृंदावन में सैकड़ों विधवाएं हैं जिन्हें उनके बेटे या परिवार वाले कृष्ण दर्शन के नाम पर छोड़ गए और फिर लौटकर कभी उनका हाल पूछने नहीं आए। आज से 25-30 साल पहले की बात है। तब मैं महिला आयोग की अध्यक्ष थी। मैं वृंदावन की विधवाओं का हाल जानने के लिए पहुंची। मैंने सड़क पर एक विधवा का शव देखा। उस शव को चील-कौवे नोंच रहे थे। ये देखकर मेरा दिल दहल गया। मैंने लोगों से कहा कि वे उसका अंतिम संस्कार करें। उन्होंने कहा कि वे विधवा का शव नहीं छू सकते, यह अपशकुन होगा। ऐसी ही तमाम भ्रांतिया और परंपराएं हैं, जिनके नाम पर विधवाओं का शोषण होता रहा है।
दर्दनाक कुप्रथा
देश में कुछ ऐसे इलाके भी हैं, जहां विधवाओं को अपशकुनी या चुड़ैल मान लिया जाता है। उत्तर व मध्य भारत और नेपाल के कुछ ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाएं सुनने में आई हैं। ऐसे मामलों में स्थानीय पंचायतें भी कुछ नहीं कर पाती है। भारत में आज भी कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां बाल विवाह और बेमेल विवाह की कुप्रथा बदस्तूर जारी है। मसलन राजस्थान के कुछ इलाकों में बहुत कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती है। कई बार तो कम उम्र की लड़कियों का विवाह उनसे कई गुना ज्यादा उम्र के पुरुषों से कर दिया जाता है। ऐसे में जब ये लड़कियां जवान होती हैं, तब तक उनके पति बूढ़े हो जाते हैं। पति की मौत के बाद इन्हें बाकी जिंदगी विधवा बनकर गुजारनी पड़ती है।
अशिक्षा व गरीबी 
विधवाओं की खराब स्थिति के लिए अशिक्षा एक बड़ी वजह है। जहां अशिक्षा है, वहां गरीबी होना तय है। गरीबी की वजह से विधवाओं को बुनियादी जरूरतें जैसे भोजन, कपड़े और दवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। अनपढ़ होने की वजह से इन महिलाओं को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं होता और वे चुपचाप शोषण बर्दाश्त करने को मजबूर हो जाती हैं। उनके लिए राज्य और केंद्र सरकारों की कई योजनाएं हैं, पर इनका लाभ उन तक नहीं पहुंचता।
बुजुर्गों के अधिकार
देश में बुजुर्गों की सामाजिक सुरक्षा का कोई खास प्रबंध नहीं है। हमारा समाज पहले से ही महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाता है, इसलिए बुढ़ापे में एक विधवा के लिए जीवन और कठिन हो जाता है। विधवाओं के लिए एक छोटी बचत योजना होनी चाहिए, ताकि वे अपने बुढ़ापे के लिए कुछ पैसा जमा कर सकें। हमें विधवाओं से संबंधित व्यवस्थित आंकड़ें एकत्र करने होंगे ताकि उनके लिए व्यापक योजनाएं बनाई जा सकें। विधवाओं के इलाज और स्वास्थ्य की देखरेख की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होनी चाहिए। विधवाओं को भी सम्मान से जीने और मुस्कराने का हक है।   
प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी
Source : http://www.livehindustan.com/news/editorial/aapkitaarif/article1-story-57-65-346865.html
हिन्दुस्तान १ जुलाई २०१३ 

Thursday, May 16, 2013

देवर ..आधे पति परमेश्वर-पल्लवी त्रिवेदी


एक लड़का और एक लड़की की शादी हुई ...दोनों बहुत खुश थे! स्टेज पर फोटो सेशन शुरू हुआ! दूल्हे ने अपने दोस्तों का परिचय साथ खड़ी अपनी साली से करवाया " ये है मेरी साली , आधी घरवाली " दोस्त ठहाका मारकर हंस दिए !
दुल्हन मुस्कुराई और अपनी सहेलियों का परिचय अपनी सहेलियों से करवाया " ये हैं मेरे देवर ..आधे पति परमेश्वर "

ये क्या हुआ ....? अविश्वसनीय ...अकल्पनीय ! भाई समान देवर के कान सुन्न हो गए! पति बेहोश होते होते बचा!

दूल्हे , दूल्हे के दोस्तों , रिश्तेदारों सहित सबके चेहरे से मुस्कान गायब हो गयी! लक्ष्मन रेखा नाम का एक गमला अचानक स्टेज से नीचे टपक कर फूट गया! स्त्री की मर्यादा नाम की हेलोजन लाईट भक्क से फ्यूज़ हो गयी!

थोड़ी देर बाद एक एम्बुलेंस तेज़ी से सड़कों पर भागती जा रही थी! जिसमे दो स्ट्रेचर थे!
एक स्ट्रेचर पर भारतीय संस्कृति कोमा में पड़ी थी ... शायद उसे अटैक पड़ गया था!
दुसरे स्ट्रेचर पर पुरुषवाद घायल अवस्था में पड़ा था ... उसे किसी ने सर पर गहरी चोट मारी थी!

आसमान में अचानक एक तेज़ आवाज़ गूंजी .... भारत की सारी स्त्रियाँ एक साथ ठहाका मारकर हंस पड़ी थीं !
- पल्लवी त्रिवेदी

Thursday, April 11, 2013

रविश कुमार जी ‘बॉब्स अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार 2013‘ में चल रही गड़बड़ियों के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं।


‘‘औरत की हक़ीक़त‘ को वोट देने के बाद भी वहां वोट दर्ज नहीं होता। इसमें आयोजकों की कोई साज़िश तो नहीं है ?‘‘
आज हमें एक ब्लॉगर मित्र ने फ़ोन पर यह कहा तो हमें हैरत हुई कि 
भी बदइंतेज़ामी का शिकार निकला।
हिन्दुस्तानी औरत का नसीब ही ऐसा है कि उसके बारे में आवाज़ उठाओ तो उसे देस में भी दबा दिया जाता है और बिदेस में भी।

ब्लॉग-चयन के लिए कुछ हिन्दी ब्लॉगर्स ने सीधे सीधे एंकर रविश कुमार जी को ज़िम्मेदार ठहरा दिया है। यह एक ग़लत बात है।
‘औरत की हक़ीक़त‘ ब्लॉग की वोटिंग ‘ज़ीरो‘ रहना इस बात का सुबूत है कि इन सारी अनियमितताओं के पीछे कुछ दूसरे छुटभय्ये टेक्नीशियन्स ज़िम्मेदार हैं। रविश कुमार जी इस तरह ग़ैर ज़िम्मेदारी से काम करते तो वह इतनी तरक्क़ी कैसे कर पाते ?
...लेकिन रविश कुमार जी को ऐसे ग़ैर-ज़िम्मेदारों का पता ज़रूर लगाना चाहिए, जिनकी वजह से उनका नाम ख़राब हो रहा है।
रविश कुमार जी पर पूरे मामले को जाने बिना ही इल्ज़ाम लगाना एक दुखद बात है। इधर हिंदी ब्लॉगर्स के नामित होने के बाद उन लोगों को जलन खाए जा रही है जो कि हरेक ईनाम का हक़दार ख़ुद को मानते हैं। उन्होंने बदतमीज़ियों का एक तूफ़ान खड़ा कर दिया है। हमारे ब्लॉग ‘ ब्लॉग की ख़बरें‘ पर ये सब ख़बरें पढ़ी जा रही हैं। हिन्दी को नुक्सान पहुंचाने वाले इसके अपने ही हैं। ‘बॉब्स अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार 2013‘ एक बार फिर इन्हें बेनक़ाब कर गया।
बहरहाल इस बहाने ‘औरत की हक़ीक़त‘ ब्लॉग बहुत पढ़ा गया। इसके लिए रविश जी और जर्मन आयोजकों (अंतरराष्ट्रीय ब्रॉ़डकॉस्टर डॉयचे वेले) का शुक्रिया।
हमारे एक अन्य ब्लॉग 'बुनियाद' पर भी रविश कुमार जी का और दूसरे पाठकों का स्वागत है।
इसके अलावा हमारे कुछ अन्य ब्लॉग यह हैं-

My blogs

इनके अलावा भी हमारे कुछ दूसरे ब्लॉग हैं। उनके लिंक फिर कभी शेयर किए जाएंगे।
इस आयोजन में दूसरे उम्दा ब्लॉग के साथ ‘हलाल मीट‘ भी चुना गया। इस ब्लॉग का कन्टेंट कितना भी उम्दा क्यों न हो लेकिन इसका चुनाव ग़लत श्रेणी में किया गया है।

Saturday, March 2, 2013

हिंदी में स्त्रियों का अपना पक्ष ज्यों ही आजाद होता है, हीरामनों का मर्दवाद कह उठता है, ‘उसे क्या आता था ? (व्यंग्य)-Sudheesh Pachauri

हीरामन की चौथी क़सम -Sudheesh Pachauri, हिंदी साहित्यकार
हीरामन ने हताश होकर चौथी कसम खाई कि अब किसी हीरा बाई की कहानी को ठीक नहीं करेंगे। इतनी मेहनत की और हीरा बाई ने थैंक्यू तक न कहा। हमने उसे बनाया, लेकिन उस थैंकलेस ने एक बार हमारा जिक्र नहीं किया। हम न होते, तो वह आज कहां होती? नाम कमा लिया, तो नजरें फेर लीं! कसम खाते हैं कि आगे से कभी किसी हीरा बाई को कथाकार नहीं बनाएंगे!

रेणु की तीसरी कसम  कहानी में तीसरी कसम खाकर हीरामन स्टेशन से बाहर निकले। घर आए। गाड़ी चलाना छोड़ लेखनी चलाने लगे। कथाकार हुए। साहित्य के ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ के अनुकूल सभी देवताओं को पूजा चढ़ाई। संपादक साधे। आचार्यों को प्रसन्न किया। इनाम झटके। चर्चा होने लगी। नाम चलने लगा। इनाम टपकते रहे। अकादमी पर टकटकी लगी।

हीरामन भोले थे। गंवई थे। उपकारी थे। रचनाकार थे। चेलों से ज्यादा चेलियां पसंद थीं। चेली देखते ही कहते कि तुम में प्रतिभा है, लेकिन सही मार्गदर्शन जरूरी है। हमें गुरु मानो। हम बतावेंगे कि किस तरह लिखा जाता है। एक दिन हम तुम्हें लेखिका बना देंगे। साहित्य की बयार स्त्रियों की ओर बहती थी। चेलियां चंट थीं। वे हिसाब लगातीं कि हीरा गुरु साहित्य में जिस तिस से जुड़ा है। दिल्ली वाले बड़े-बड़े नाम उसकी मानते हैं। वह अलेखिकाओं को लेखिका बना सकता है, मैं तो लेखिका हूं।
हर शहर में संभावनावान लेखिकाएं होती हैं। हर शहर में एक-दो हीरामन हुआ करते हैं। सबको साहित्य की गाड़ी चलाने वाला एक ठो गाड़ीवान चाहिए। बिना एक हीरामन के साहित्य की गाड़ी आगे नहीं बढ़ती। हीरामनों की डिमांड बनी रहती है। हीरामन सब टोटके जानते थे। बिना खर्चा के साहित्य में चर्चा नहीं होती। आसामी देखते, तो कैश की डिमांड बढ़ा देते और आसामिन हुई, तो यों ही कृपालु हो उठते। हिंदी में लेखिकाओं के घोर अकाल को देख वह लेखिका बनाने का अपना ऐतिहासक कर्तव्य निभाने चले थे।
उन्होंने ‘नई कहानी’ का ‘द विंसी कोड’ पढ़ रखा था, जो कहता था कि हर लेखक के पीछे एक पत्नी के अलावा एक लेखिका (प्रेमिका) जरूरी होती है। ऐसी ही किसी शुभ घड़ी में उनके पास एक संभावनाशील लेखिका आई। आप हमारी कथा देख लें, यह विनती की। साहित्य की अनजान नगरी में हम नई हैं। आप सर्वज्ञ हैं। हमारी कथा ठीक न लगे, तो ठीक कर दें। हीरामन ने बड़ी मेहनत से कथा करेक्ट की। इतनी  तो कभी अपनी करेक्ट न कर सके। लेखिका को प्रकाशक मिल गए। कथा प्रकाशित हो गई और देखते-देखते लेखिका का नाम फैल गया। हर पत्रिका में रिव्यू हो गया। हीरामन की कल्पना से भी स्वतंत्र शक्तियां साहित्य में सक्रिय हो उठीं। सब गुण ग्राहक थे। इनाम-इकराम की बातें फैलने लगीं। लेखिका आजाद हो गई। पंख फैलाने लगी।
हीरामन निराशा में डूब गए। बदले की कार्रवाई में उनका मर्द जाग गया। फिल्मी हीरो की तरह कहने लगे: इतना घमंड? हम बना सकते हैं, तो मिटा भी सकते हैं। कसम खाते हैं कि अब कभी किसी हीरा बाई को लेखिका नहीं बनाएंगे! हिंदी में स्त्रियों का अपना पक्ष ज्यों ही आजाद होता है,  हीरामनों का मर्दवाद कह उठता है, ‘उसे क्या आता था? मैंने बनाया है उसे लेखिका!’ ऐसे स्त्री-विरोधी वातावरण में अगर कोई लेखिका दुर्दमनीय हो साहित्य में निकल पड़ती है, तो उसकी जय बोलने का मन करता है..।
साभार दैनिक हिन्दुस्तान दिनांक 3 मार्च 2013

Monday, February 18, 2013

पितृभक्ति में श्रवण कुमार माधवी से छोटा होकर भी अधिक याद क्यों किया जाता है ?


माता पिता की सेवा का जब भी नाम आता है तो हमेशा श्रवण कुमार का नाम लिया जाता है।
क्या इसके पीछे भी पुरूषवादी मानसिकता ही कारण बनती है ?
क्या वैदिक इतिहास में किसी लड़की ने अपने माता पिता की सेवा नहीं की ?
अनगिनत लड़कियां ऐसी हुई हैं जिन्होंने अपने माता पिता की प्रतिष्ठा के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया।
एक लड़की का सब कुछ क्या होता है ?
उसकी इज़्ज़त, उसकी आबरू !
विवाह हो जाए तो पति के लिए उसके नाज़ुक जज़्बात और बच्चे हो जाएं तो अपने लाडलों की ममता !
माधवी ने अपने पिता ययाति की प्रतिष्ठा बचाने के लिए यह सब कुछ गंवा दिया लेकिन किसी से शिकायत तक न की। उसके त्याग और बलिदान के सामने श्रवण कुमार का शारीरिक श्रम कहीं नहीं ठहरता लेकिन फिर भी माधवी का नाम पितृभक्ति में कभी नहीं लिया जाता।
ऐसा क्यों ?


Tuesday, February 5, 2013

औरत का क़ानूनी जलवा


चपरासी के अलावा ऑफ़िस के सभी लोग जा चुके थे। सीईओ अपने रूम में जुटे हुए थे। हालाँकि उनकी उम्र काफ़ी हो चुकी थी फिर भी बस एक जोश था, जो उन्हें अब भी नौजवानों की तरह जुटे रहने के लिए मजबूर करता था लेकिन जवानी बीत जाए तो सिर्फ़ जोश से ही काम नहीं चलता। सीईओ साहब जल्दी ही निपट गए। 
उनकी सेक्रेटरी को भी जो कुछ ठीक करना था, हमेशा की तरह ठीक कर लिया। सीईओ साहब ने अपनी सेक्रेटरी के चेहरे पर नज़र डाली। वहां कोई शिकायत न थी। वह मुतमईन हो गए और अपना ब्रीफ़ेकेस उठाकर चलने ही वाले थे कि सेक्रेटरी ने आज का न्यूज़ पेपर उनके सामने रख दिया, जिसमें यौन हमले और शोषण का अध्यादेश लागू होने की ख़बर थी।
सेक्रेटरी मुस्कुराते हए बोली -‘आप क्या चुनना पसंद करेंगे, 20 साल की क़ैद या ...?‘
‘क...क...क्या मतलब ?‘- सीईओ साहब हकला भी गए और बौखला भी गए।
सेक्रेटरी ने जवाब देने के बजाय एक एप्लीकेशन उनके सामने रख दी। उसका पति कंपनी का 50 लाख रूपये का स्क्रेप बेचने की अनुमति चाहता था। 
‘यह तुम ठीक नहीं कर रही हो।‘-सीईओ साहब ने हिम्मत करके उसे चेताया।
‘...और आज तक आप जो कुछ करते आए हैं, वह ठीक था ?’-सेक्रेटरी ने तल्ख़ लहजे में ज़रा ऊँची आवाज़ करके कहा।
‘वह सब तुम्हारी रज़ामंदी से होता था।‘-साहब ने उसे याद दिलाया।
‘हाँ, मेरी रज़ामंदी से होता था क्योंकि मैं घुटन से आज़ादी पाना चाहती थी।‘-उसने टेबल पर बैठते हुए उसकी जेब से उसका पेन निकाला और उसके हाथ में थमा दिया।
‘...तो इसके लिए तुमने मेरा इस्तेमाल किया ?‘-सीईओ साहब कुर्सी पर न बैठे होते तो शायद वह चकरा कर गिर जाते।
‘हाँ किया और आपकी रज़ामंदी से ही किया।‘-उसने चेक को उनके बिल्कुल सामने कर दिया।
‘...तो अब क्या चाहती हो ?‘-उन्होंने थके से लहजे में पूछा।
‘बस एक साइन ...‘-उसने ज़रा इठलाकर उनके गाल पर उंगली फिराई।
सीईओ साहब कुछ तय नहीं कर पा रहे थे। तभी लेडीज़ पर्स में रखे मोबाईल पर किसी की कॉल आई। उसने टेबल से उतर अपना मोबाईल चेक किया।
‘जल्दी कीजिए। मेरे पति बाहर खड़े हैं। अगर मैं बाहर न गई तो फिर वह यहाँ अंदर चले आएंगे।‘-सेक्रेटरी ने उसे दबे अल्फ़ाज़ में धमकी दी। 
साहब ने उससे पेन ले लिया और एप्लीकेशन पर मंजूरी लिख कर अपने साईन बनाने लगे। वियाग्रा उनके हाथ को काँपने से नहीं रोक पा रही थी। आज उन्हें औरत अपने से बहुत ज़्यादा मज़बूत नज़र आ रही थी . नया क़ानून उसके साथ था।